निवस्त्र होकर नहाने से,सोने से और खाना खाने से आपको ये यमलोक में ये सजा मिलेगी ।
दोस्तों एक बार मनुष्यों की दुर्दशा देखते हुए, गरुड जी भगवान विष्णु जी के पास जाते है । और कहते है, हे भगवान । आपने मेरे को जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी अवस्थाओं को विस्तारपूर्वक बताया है। इसके साथ ही मनुष्यों की मृत्यु के उपरांत किए जाने वाली सभी क्रियाओं के बारे में भी बताया है। आज धरती लोग पर बहुत से लोगों को निवस्त्र होकर नहाते देखा है। तभी से मेरे मन में एक बात को लेकर शंका उत्पन्न हो रही है। उस मेरी संका का आप ही निवारण कर सकते है। भगवान विष्णु जी कहते है, हे गरुदेव , तुम्हारे मन जो भी संका चल रही है, निसंकोच होकर पूछो, में निश्चित ही तुम्हारी संका का समाधान करूंगा । क्योकि जब तक हमारे मन में संका होती है , तब तक हम कोई काम सच्चे मन से नही कर पाते है। हर संका का निवारण करना मेरा मूल कर्तव्य है। हे नारायन मेरे मन में यह जानने की इच्छा जागृत हो रही है। की मनुष्यों को कौनसे कार्य निवस्त्र होकर नहीं करने चाहिए ।
ये कौनसे कार्य है और इन कार्यों को करने पर कौन सा पाप लगता है। और इसके पीछे का कारन क्या है । तभी भगवान विष्णु जी क़हते है। हे गरुड देव आपने उतम प्रशन पूछा है। तुम्हारे इस प्रशन के उतर में सम्पूर्ण मनुष्य जाती का कल्याण छिपा है। तुमने सत्य ही कहा है, की मनुष्यों को निवस्त्र होकर ये तीन कार्य नहीं करने चाहिए, निवस्त्र होकर सोना, भोजन करना और सहवास नहीं करना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्यों के जीवन में अशुभ प्रभाव पड़ता है । और वो पाप का भागीदार बन जाता है। भगवान विष्णु जी बोले, तुम्हारे प्रशन के उतर के लिए में एक कहानी सुनाता हूँ, जो इस सम्पूर्ण जगत के लिए परोपकारी होगी, इस् कहानी को सुनने मात्र से ही आत्मा की सुधि हो जाएगी, और अगर कोई मनुष्य अधार्मिक कर्म करता है तो , इस कहानी के बाद वो बुरे कर्म करने छोड़ देगा। प्राचीन समय की बात है ,उतर पश्चिम दिशा में एक अत्यंत धनी विशंभरी नाम का नगर था । उस नगर के अंतिम सीमा पर वासुदेव नाम का एक विद्वान ब्राह्मण रहता था।
उसे चार वेद उपनिषद और कई काव्यों का ज्ञान था। वह हर रोज भगवान के नए नए ग्रंथ पढ़ता और नित्य भगवान के भजन करता। एक दिन वासुदेव शर्मा एक तीर्थ यात्रा के लिए घर से निकलता है। वह अपने साथ में भोजन के रूप में थोड़े चावल रख लेता है । वासुदेव घने जंगलों से होकर तीर्थ यात्रा के लिए चल देता है। बहुत देर चलने के बाद वासुदेव को प्यास लग जाती है। तभी उसे सामने एक जलाशय दिखाई देता है। वह उस जलास्य के पास बैठकर जल पीता है। और एक पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करने लगता है। तभी चावल पकाने के लिए पंडित जी सुखी लकड़ी इकट्ठी करने लगता है। लेकिन वहाँ पर सारे वृक्ष हरे भरे दिखाई देते है।
जबकि सामने एकमात्र दो ऐसे पेड़ होते है। जो सुखकर ठुठ हो चुके थे। उन पेड़ों पर एक भी पत्ता नहीं था। उनके पास एक अजीब सा सनाटा था। इन दो पेड़ों को देखकर शर्मा जी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। पंडित जी इन पेड़ों को देखकर सोचने लगता है, की बड़ी ही विचित्र बात है, की इस जंगल के सभी पेड़ पौधे हरे भरे है, जलाशय के नजदीक होने के बावजूद भी ये दो पेड़ एकदम सूखे और उजड़े हुए है। इन पेड़ों पर न तो पत्ते है, और न ही छाल, ये पेड़ नग्न प्रतीत हो रहे है। तभी मन ही मन खुश हो जाता है, की चलो जलाने के लिए लकड़ी तो मिली । जब वासुदेव शर्मा इस सूखे पेड़ की टहनी तोड़ने लगता है , तभी पेड़ के अंदर से आवाज आती है, रुक जाओ , ब्राह्मण रुक जाओ, आप ये अनिष्ट कार्य कर रहे हो। उस आवाज को सुनकर वासुदेव चोंक जाता है।
और इधर उधर देखने लगता है, और कहने लगता है। कौन हो तुम, दिखाई क्यों नहीं पड़ते है। सामने आकर बात करों । फिर से एक बार और आवाज आती है। हे ब्राह्मण देवता , हम आपके सामने है। आप ही हमे नहीं देख पा रहे है। शर्मा जी कहते है। भाई तुम कौन हो ,मेरे को तो दिखाई नहीं देते । फिर से आवाज आती है, हे ब्राह्मण देवता आप जिस वृक्ष की टहनी तोड़ रहे है। में वही वृक्ष बात कर रहा हूँ। किन्तु आप मुझे पहचान नही पा रहे है। ऐसा सुनते ही ब्राह्मण देव घबरा जाता है । डर के मारे ब्राह्मण इधर उधर देखने लगता है । तभी उसकी नजर उन दो सुखेन पेड़ों पर पड़ती है ।
तभी ब्राह्मण देखता है। की वो पेड़ मनुष्यों की वानी में बात कर रहे है। इस विचित्र घटना को देखकर वासुदेव शर्मा को बड़ा ही आश्चर्य होता है, वह कहने लगता है, की बड़ी विचित्र बात है । यह मृत पेड़ तो मनुष्यों की वाणी में बात कर रहे है। हे प्रभु आपकी कैसी विचित्र लीला है। वासुदेव उन मृत वृक्षों को कहने लगता है। हे वृक्ष देव तुम कौन हो, और तुम मनुष्यों की वाणी में कैसे बात कर रहे हो । और तुम्हें वृक्षों का शरीर कैसे मिला । तुम्हारे समीप जल का इतना बड़ा जलाशय होने के बावजूद भी, तुम सूखे हो जबकि बाकी सारे पेड़ हरे भरे है। आखिर ऐसा कैसे संभव है । वासुदेव शर्मा की बात सुनकर पेड़ कहने लगा । हे ब्राह्मण देवता हमारी ऐसी दशा हमारे कर्मों के कारण ही हुई है।
हमने जो पिछले जन्म में पाप किए थे, उसी का फल भुगत रहे है। शर्मा जी कहते है हे वृक्ष देव कृपा करके आप मुझे आपके पिछले जन्म का दुख भरा वृतांत सुनाने की कृपा करें। तब वह वृक्ष बोलने लगता है, हे ब्राह्मण देवता, अब हम आपको हमारे पिछले जन्म का वृतांत सुनते है। पूर्व काल में धनेवस्वर नाम का वैशय था। और यह मेरे पत्नी दूरमती है । मेरा स्वभाव बड़ा ही दुष्ट और क्रूर था ,में लोगों को ब्याज पर पैसे देकर धन कमाया करता था, में किसी प्रकार का कोइ दान नहीं करता है, हमेशा ही अधर्म के मार्ग पर चलकर गरीब और बेसहारा लोगो को परेशान करता था । उस कारण हमारी कोई संतान नहीं थी । हम दोनों संतान सुख की प्रापती के लिए निवस्त्र अवस्था में भोग विलास लिया करते थे, और निवस्त्र होकर स्नान करते, और सयन किर्या करते । हमने बहुत ज्यादा भोग विलास किया लेकिन फिर भी हमे कोई संतान की प्रापती नहीं हुई।
मैंने कभी भी अपने पूर्वजों को याद नहीं किया, और ना ही उनका कभी श्राद किया। जिस कारण से मेरे पूर्वज रुस्ट हो गए। मेरा मन सदेव ही कामवासना से भरा रहता । हम पती पत्नी दिन रात भोग विलासिता में डूबे रहते थे , और हर काम निवस्त्र होकर करते। जिसके कारण हमारे कुलदेवता भी हमसे नाराज हो गए । इस प्रकार अनेकों वर्ष बीत जाने के बाद भी हमे पुत्र की प्रापती नहीं हुईं । हम पुत्र प्रापती की कामना को लिए हुए, हम दोनों से पवित्र नदी में स्नान किया, और निवस्त्र होकर संबंध बनाया। तभी नदी में तूफान आता है, और हम दोनों उस नदी में डूब जाते ,जिससे हमारी मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के पश्चात हमे मृत्यु लोग ले जाने के लिए दो यमदूत प्रकट हुए, वे दूत हमे पकड़कर यमपुरी ले गए। यमपुरी का दृश्य अत्यंत भयानक था। यमराज विशाल काल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उनके बगल में चित्रगुप्त जी भी बैठे हुए थे ।
जो की यमपुरी में आए हुए सभी प्राणियों का लेखा जोखा देख रहे थे। जब मेरे बारी आई ,तो यमदूतों ने मेरे को यमराज जी के समक्ष खड़ा कर दिया , फिर चित्र गुप्त जी यमराज जी से कहने लगे , हे धर्मराज , इस वैश्य ने तो अपने जीवन में अभी तक कोई पुण्य का काम नहीं किया है। इसने अपने पूर्वजों का सदेव ही अनादर किया है। इसने सदेव निवस्त्र होकर स्नान, भोजन तथा शयन किया है। इसलिए यह केवल नरक जाने के ही योग्य है। इस प्रकार से चित्रगुप्त जी ने मेरे कर्मों का लेखा जोखा यमराज जी को बताया। यमराज जी ने मुझे देखकर कहने लगे, अरे दुष्ट तूने तो कोई पुनय के काम नहीं किए, तुन ने सदेव ही निवस्त्र होकर स्नान करके, वरून देवता का अपमान किया है। निवस्त्र शयन करके तूने अपने पूर्वजों को अपमानित किया है। तथा निवस्त्र होकर भोजन करके ,तूने अन्न का भी अपमान किया है।
इसलिए तुझे नरक में डाल दिया जाएगा। इस प्रकार से यमराज ने अपने दूतों को आज्ञा देकर मुझे नरक में दाल दिया। मेरे पश्चात मेरे पत्नी को भी यमराज के सामने लाया गया ,और उसे देखकर चित्रगुप्त ने धर्मराज जी से कहा । हे धर्मराज इस पापी स्त्री ने भी अपने पती की तरह कोई पुनय का काम नहीं किया है। उसने भी निवस्त्र होकर भोजन और सयन किया है । इसने समस्त देवी देवताओं और पित्रों का अपमान किया है। अतः यह भी नरक जाने के ही योग्य है। इस प्रकार से यमराज ने हमारे पाप कर्मों को देखते हुए, हम दोनों पती पत्नी को नर्क में डाल दिया। नरक में सजा भुगतने के पश्चात हमे वृक्ष का शरीर प्राप्त हुआ। जैसे जैसे हम बड़े हुए, हमारे सारे पत्ते भी गिर गए, और हमारी छाल भी नष्ट होती चली गई ।
जिस प्रकार हमने मनुष्य योनी में रहते हुए देवताओं का अपमान किया । जिसके कारण इस जन्म में वृक्ष के रूप में हमारा शरीर भी नंग्न हो गया है। और हम कष्ट भुगत रहे है । हे ब्राह्मण देव हमे इस कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए कोई उपाय कीजिये। इस प्रकार से उन दोनों की बात सुनकर वासुदेव को उन दोनों सूखे पेड़ों पर दया आ गई। और वे उसी स्थान पर बैठकर भगवान विष्णु जी की प्राथना करने लगे। और वृक्ष बने हुए वैश्य और उसकी पत्नी की मुक्ति की कामना करने लगे। वासुदेव कहने लगा , हे प्रभु में अपने भगवत गीता के पाठ का पुण्य ,इन वैश्य पती पत्नी को प्रदान करता हूँ। कृपा करके आप इन दोनों को मुक्ति प्रदान कीजिये, इतना कहते ही वे दोनों पेड़ धड़ाम से टूटकर जमीन पर गिर गए । उसके अंदर से अत्यंत सुंदर वस्त्र परिधान पहने हुए वैश्य और उसकी पत्नी प्रकट हुई । फिर उस स्थान पर भगवान विष्णु जी के दो पार्षद प्रकट हुए। और उन दोनों को दिव्य विमान में बैठाकर दिव्य लोक में चले गए।
इस प्रकार से भगवत गीता के पढ़ने का पुनय प्राप्त करके वह वैश्य और उसकी पत्नी दोनों को ही मोक्ष की प्रापती हुई। और भगवान विष्णु जी कहने लगे। हे गरुड़देव जी मनुष्य को कभी भी निवस्त्र होकर भोजन सयन और स्नान नहीं करना चाहिए । निवस्त्र स्नान करने से जल देवता वरून का अपमान होता है। निवस्त्र भोजन करने से अन्न की देवी माँ अनपूर्णा का अपमान होता है । और निवस्त्र शयन करने से समस्त पित्र देव रुष्ट हो जाते है। इसलिए मनुष्यों को कभी भी बिना वस्त्रों के ये तीन काम कभी नहीं करने चाहिए । दोस्तों इस प्रकार से भगवान विष्णु जी ने, गरुड देव जी को महत्वपूर्ण ज्ञान दिया । आपको ये कथा कैसी लगी, कमेंट करके बताये ।